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कविता

आग लगाने वाले

विशाल श्रीवास्तव


कंदराओं और पहाड़ियों को 
पार करके नहीं आते आजकल
आग लगाने वाले
वे यहीं हैं
ठीक हमारे बीच
उन्हें पहचानने की कोशिश करो
देखो वे हमसे अलग नहीं हैं चेहरे मोहरे में
रक्त भी हमारे जैसा ही है उनका
हमारे ही जैसा स्वेद
 
नहीं हैं वे 
पुराने अच्छे दिनों के खलनायकों की तरह भी
जिन्हें देखते ही पहचान सकते थे हम
उनके चेहरे, कपड़ों या आँखों में बसी क्रूरता से
वे जो करना चाहते थे वह दिखता था उनकी भंगिमा में
हिंसा उनके लिए गर्व का विषय थी
शराफत का कोई ओवरकोट नहीं था उनके पास
 
आजकल आग लगाने वाले बड़े विनम्र हैं
सुसंस्कृत और सभ्य हैं 
अच्छी फिल्में देखते हैं 
सुनते हैं अच्छा संगीत 
परिष्कृत रुचियों से लैस हैं
आजकल आग लगाने वाले
 
मुश्किल यह है कि अब वे दूसरी तरफ नहीं 
इधर ही खड़े हैं ठीक हमारी ही तरफ
 
आग लगाते हैं वे 
शब्दों से 
चुप्पी से 
शब्दों के बीच के अंतराल से 
कभी कभी तो 
पानी से भी आग लगाते हैं वे
 
आग लगाते वक्त
गिरोहबंदी कर लेते हैं वे
हिंसक हो जाते हैं
मिमियाते रिरियाते है
भावुक होकर रोते है
अपनी पूँछ दबाकर
फिर लपकते हैं सियार की तरह
 
जबड़ों से रिसते खून को
छिपाने की कोशिश करते हुए
मातमपुर्सी को पहुँच जाते हैं
आगजनी की जगह पर
और देते हैं उदात्त दार्शनिक प्रवचन 
 
वे जब भी उब जाते हैं 
प्रगतिशीलता की जकड़न से
तो पिकनिक मनाने के लिए
आग लगाते हैं
और फिर चुपचाप आकर 
बैठ जाते हैं हमारे ही शिविर में
 
मृत्युगंध गई भी नहीं होती 
उनकी काया से
और वे हमें ही सिद्ध करते हैं
हत्यारा
 
सोचो कि कैसे बचना है इस आग से
रहते हुए इसके बीच
हवा की तरह
पानी की तरह

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